गुरुवार, 29 जून 2017

धाणका समाज...धाणका -समाज कल से आजतक , कृपया पढें व जानें- आदिवासी से शहरी
अंग्रेज लेखक ऐन्थोवेन द्वारा सन 1920 में लिखित पुस्तक The Peoples of India voll-III (Schedule Tribes ) , मर्दुमशुमारी-आफ-मारवाड सन १८९१ व सामाजिक विशलेषण करने पर पाया गया है कि धाणका-जाति को, धानक, धानुका व धानकिया के नाम से भी जाना जाता है और इन्हें भील जाति का एक भाग व म आदिवासी माना गया है। आज भी धाणका-समाज के लोग पूर्वी पश्चिम, , उत्तरी व दक्षिणी भारत में विभिन्‍न कार्यों के अलावा आदिवासी क्षेत्रों में जंगलों के उत्पाद व बांस के सामान बनाते थे। धाणका-समाज के लोगों द्वारा सरकण्डों की झार बनाकर व धानमन्डी में "धान-का-काम" करते हैं। इसलिये धानका कहलाते हैं। कुछ 'धान-का-कर्म' करने से धानक तो, अनेक 'धान-का-उत्पाद का काम' से धानुका, तो कुछ 'धान-का-उत्पाद के कर्म' से धानुक बन गये हैं।
भाषा-शास्त्री के अनुसार 'ध' शब्द बनावटी है और जीभ व तालू में प्रशिक्षण करने के बाद ही 'ध' अक्षर प्रचलित हुआ है। अत: 'ध व धा' शब्द प्राचीन नहीं है।
हमारे पुर्वज आज भी पूर्वांचल , छत्तीसगढ़, उडिसा, झारखंड मध्यप्रदेश, उत्तरी भारत व दक्षिणी आन्धप्रदेश आदि राज्यों में निवास करते हैं।
जंगलों में अतिक्रमण , रोजगार की तलाश , युद्ध के दौरान भगदड़ में व मनुवादियों द्वारा अपहरण व गुलाम बनाकर ले जाने से हम आदिवासी से विभिन्‍न क्षेत्रों में विभक्त होकर भिन्न-भिन्न काम करने से विभिन्न जातियों में विभाजित हो गये हैं।
धान की खेती, धान की रखवाली , धान-मंडियां विकसित होने के बाद हमारे आदिवासी समाज के लोग "धान-के विभिन्न कार्यों के अलावा विभिन्न कार्य करने लगे हैं।
मनुवादियों की मनुस्मृति के ब्राह्मणवाद के अत्याचारों व शोषण व जातिगत हीनता के कारण हमारे समाज के लोग धाणका, धानक, धानुका, धनदेय, धनदेय-राज, धानविक, धनविक,धनविका , धनुविका, धानुविक, धानुक, धानुविका ढाका, धनुष्य, धानुष्य आदि कहने व लिखने लगे।
समाज के कुछ लोग ईंट-भट्टे पर का काम करने लगे तो, अन्य लोग उन्हें धानकिया कहते थे- मगर समाज के लोगों ने कभी-भी धानकिया जाति लिखना उचित नहीं समझा था।
समाज के अनेक लोग जुलाहा, बुनकर, रंगदारी आदि का काम करने से जुलाहा, बुनकर आदि बनकर ३३ जातियों में विभाजित हो गये हैं और कुछ लोग कबीरपंथी की धुन में , गोगाजी की गोद में गोखी बनकर बैठ गये, कुछ मुस्लिम की फकीरी में, ईसाई व बुद्धिज्म का दामन थाम लिया है।
अनेक लोग सुदर्शन की पूंछ पकडकर धन-धन का सतगुरु की जय बोलकर , कुछ सिख-पंथ को प्यारे हो गये हैं। मगर आज समाज के अधिकांश लोग मनुवादियों की बन्दरसेना और वोटबैंक बन गये हैं।
बिडम्बना यह भी है कि समाज के अधिकांश लोगों ने श्रेष्ठजन बताने के लिये, गोत्र बदलने के नाम पर शर्म मरते, इतनी छेडखानी की है कि समाज के अधिकतर गोत्रों के लोग, अपनों से बेगाने हो गये हैं। अनेकों परिवार सूर्यवंशी, मोर्यवंशी, चौहानवंशी, चन्द्रवंशी, तंवरवंशी व सनातन-काल के सनातन-कर्म में सनातन-धर्मी में डूबकी लगा रहे हैं । अनेक लोग बिना खडग बिना ढाल की शरण में कथेरिया की कटार व खुण्डिया से खांडा लेकर खन्ना शहर में घूसपेठ कर गये हैं । बामणीया ने बर्मन में छलाँग लगाई, खनगवाल ने खन्ना व खुण्डियां ने खंडेलवाल के परिवारों में सेंधमारी की है, नुगरिया गोत्र के कुछ नर नागर की नंदा बन गये हैं, बाकी गोत्र के लोग कहीं न कहीं हेराफेरी कर गैरों से जुगाड बैठा रहे हैं।
समाज के अनेकों गोत्रों ने खुशफहमी के बडप्पन की तलाश में स्वयं के अतिरिक्त बच्चों को भी मतिभ्रमित कर दिया हैं। अनेक लोग बिना धनुष-तीर-कमान के किसी काल्पनिक प्राचीन ऋषि से मिलते-जुलते नाम धनुक, धनक ,धानुष्य को मनुवादी ग्रन्थों में ढूंढ रहे हैं। अनेक लोग वापिस गिअर अडाकर धाणका जाति में अड गये हैं।
आज भी समाज के अनेक क्षेत्रों के लोग गोत्र कथेरिया, बसोड को जाति बता रहे हैं, तो कुछ लोगों ने गोत्र के नाम पर बावन संगठन बनाने पर ऊतारू हो गये हैं। सुदर्शन जाति बताकर समाज के कुछ लोग ब्राह्मणा ऋषि सुदर्शन की औलाद बताने में गर्व करते हैं। जब्कि सुदर्शन नामका कोई ऋषि कागजी पूराण व शास्त्रों में पैदा ही नहीं किया है।
उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश आदि राज्यों के कथेरिया व पनसेरिया गोत्र के लोग गोत्र को जाति मानकर लोग एक ही गोत्र में शादी कर रहे हैं।
केन्द्रीय जातिगत आरक्षण के गजटस में राष्ट्रपति के हस्ताक्षर से प्रमाणित धाणका (Dhanka) शब्द को जनजाति माना है। हमारे समाज की औरतें दाई, धाय का काम करती थीं। उदयपुर की पन्ना-धाय इसका एक प्रमाण है और जयपुर, नागौर, जोधपुर आदि दरबारी दस्तावेजों उपलब्ध तनिक इतिहास से भी जाना जा सकता है।
झांसी की रानी नाम से मशहूर समाज की देशभक्त महायोद्धा झिलकारीबाई कोरी, दुर्गावती गोंड, कवि व लेखक फनिश्वर-रेणु, महात्मा जोगेंद्रनाथ-मंडल आदि शिक्षित, गुणी, योद्धा व प्रभावशाली व्यक्ति रहे हैं।
हमारे पुर्वज द्राविङ, गोंड-समाज, संथाल, मुण्डा, सारणा, भील आदि आदिवासी के मूल परिवारों से हैं। आज से तकरीबन पचास साल पहले तक, हमारे अपने समाज के रीतिरिवाज थे, मगर आज हमारा समाज मनुस्मृति की कुप्रथाओं व नियमों के अनुसार सामाजिक व धार्मिक रीति-रिवाज पूरे कर रहे हैं
मर्दुमशुमारी आफ मारवाड़ सन 1891 के अनुसार औरंगजेब के शासनकाल में धानका-समाज के लोगों ने अनाज का अपमान कर, धान को तहस-नहस किया था। जिसके कारण, औरंगजेब ने किसी भी जाति के लोगों द्वारा धानका-समाज के लोगों को अनाज देने पर, पाबन्दी लगा दी थी। भूखभरी व मनुवादी व्राह्मणों के शोषण व अत्याचारों के कारण हमारे समाज के अस्सी हजार लोग मुसलमान बन गये थे।
वाल्मीकि जाति के लोग स्वयं को धानका-समाज से ऊंचा समझते थे और उनके हाथ का छुआ हुआ, खाना व सामान नहीं लेते थे।
मेरा मानना है कि धानका जाति में विभिन्न जातियों के लोग शामिल हैं। इसमें उरांव, तेतरिया, तदवी, वल्वी आदि
................BY AMIT KATHERIYA

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