बुधवार, 10 मई 2017

दूकानदारी या नौकरी
भारत में केवल तीन जातियों के लोग है जो आपको कहीं भी मजदूरी करते व भीख माँगते हुए नहीं मिलेंगें।
1. जैन-समाज, 2. पारसी-समाज और 3. अग्रवाल-समाज

इन तीनों समाजों की धारणा है कि युवक-युवतियों को पढाई-लिखाई के साथ-साथ कोई न कोई व्यवसाय करना सीखना चाहिए। क्योंकि एक दुकान से पूरे परिवार को रोजगार मिलता है और अन्यों को भी रोजगार दे सकते हैं।
अगर किसी भी कारणवश इनके बच्चे पढने-लिखने में नालायक हो जाते हैं तो वे चिन्ता नहीं करते हैं, बल्कि वे बच्चों को दूकानदारी करना सीखाते रहते हैं।
पढने-लिखने के बाद नौकरी नहीं मिले तो, उन्हें स्वयं की दूकानदारी करने से बेहतर कोई अन्य विकल्प नहीं मानते हैं।

ध्यान रहे:- मजदूर अधिकतम 50 वर्ष की उम्र तक मजदूरी करने की शारीरिक क्षमता रखता है और जीवन भर मजबूर रहता है। नौकरीपेशा करने वाले व्यक्ति अधिकतम 60 वर्ष की उम्र तक ही नौकरी कर सकते हैं। परन्तु उनके बच्चों का भविष्य अनिश्चित रहता है। व्यवसाय करने वाले व्यक्ति मरते दम तक दूकानदारी करने की मानसिक-शक्ति रखते हैं और उनका व्यवसाय पीढी-दर-पीढी चलता रहता है।
अगर इनका कोई बेटा-बेटी पढ लिख कर नौकरी करता है तो ठीक है, नहीं तो वे व्यवसाय में अधिक से अधिक आर्थिक विकास करते-रहते हैं।

दूकानदारी में विकलांग मंदबुद्धि, बदसूरत सभी जायज माने जाते हैं। क्योंकि व्यवसाय में शरीर की ताकत नहीं' दिमाग की जरूरत होती है, जबकि मजदूरी में शारीरिक दमखम की।
पिता नालायक है तो जरूरी नहीं है कि उसके बच्चे भी नालायक होंगे। माता-पिता पढाने-लिखाने व दूकानदारी का आधार तैयार करते हैं, जबकि बच्चे शिक्षण प्रशिक्षण व व्यवसाय के माध्यम से विकास करते हैं।

निर्णय आपके हाथ में है:-
अगर आप मानसिक रुप से हिम्मत करने में कमजोर हैं तो आप अपने बच्चों को पढने-लिखने के अतिरिक्त किसी न किसी व्यवसाय का काम करना सिखाएं।
आपकी पत्नी, लडकी या वधु स्वयं के जनरल-स्टोर, मनियारी, फोटोस्टेट, मोबाइल रिपेयरिंग आदि के काम में आपका साथ देने की बहुत मानसिक शक्ति रखती हैं।

नोट:— *लोग क्या कहेंगे* का जुमला कहने वालों को मानसिक रुप से विकलांग माना जाता है।
अत: आप अपने दिमाग के "घूंघट के पट खोलिये", तभी पिया मिलेंगे अर्थात् आर्थिक विकास सम्भव है।..............................AMIT KATHERIYA

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